सोमवार सुबह लगभग 2 बजे ख़ैबर पख़्तूनख़्वा के टिराह घाटी के मट्रे दारा गांव पर एक हवाई हमला हुआ। इस कार्रवाई में चीन‑निर्मित जेएफ‑17 जेट्स ने आठ एलएस‑6 लेज़र‑गाइडेड बौम्ब गिराए। मिलिट्री के अनुसार बम गिराने का कारण यह था कि गुप्त सूचना मिलने पर आतंकियों ने नागरिक इलाकों को अपना कवर बना लिया था।
स्थानीय रिपोर्टों के मुताबिक, बमबारी के बाद तुरन्त 30 लोग मारे गये, जिनमें महिलाएँ और छोटे‑बच्चे भी शामिल थे। कई परिवारों ने बताया कि वे सो रहे थे जब अचानक ध्वनि और धड़ाके ने घरों को धराशाई कर दिया। कुछ लोग बचे रही इमारतों में आग तक देख पाए, जबकि कई घरों में निचे धुंआ भर गया।
पुलिस का एक अधूरा बयान कहता है कि यह बमबारी नहीं, बल्कि एक तालिबान कमांडर के ठिकाने में बम बनाने की सामग्री का विस्फोट था, जिससे 24 लोग मारे गये—वहां 14 मिलिटेंट और 10 आम नागरिक। इस संस्करण को विरोधी दल और कई स्थानीय गवाहों ने तुरंत खारिज कर दिया, क्योंकि वे दावा करते हैं कि फायरिंग साफ‑साफ आम लोगन के घरों पर की गयी थी।
हिंसा के इस कर्तव्य को लेकर पार्टी‑प्रसंग में गहन उथल‑पुथल शुरू हो गई। पाकिस्तान तेज़रे‑ए‑इंसाफ (पीटीआई) ने कहा, “शब्द नहीं बयां कर पाते इस शोक को।” उन्होंने सरकार को इस तरह की हवाई बमबारी रोकने की चेतावनी भी दी। पेज़ावर में एआरएफ़ बेस को घेरने की बात भी उभारी है, जहाँ कई पाष्टू नेता और आम जनता ने खुद को इकत्र किया है।
मानवाधिकार आयोग ने "अंतरराष्ट्रीय मानवीय कानून का स्पष्ट उल्लंघन" कहा, क्योंकि सटीक एलएस‑6 बॉम्ब का प्रयोग नागरिक बस्तियों पर किया गया था। अंतरराष्ट्रीय देखरेख समूहों ने भी इस घटना को निरंकुश शक्ति दिखाते हुए बताया, और अब तक के आंकड़े दर्शाते हैं कि 2025 की मार्च से इस क्षेत्र में कम से कम चार बार समान ड्रोन स्ट्राइक हुईं, हर बार बड़ी संख्य में नागरिक हताहत हुए।
टिराह घाटी की जटिल भूगोल और अफगान सीमा की निकटता इसे कई सालों से आतंकवादी समूहों की पसंद बनाता आया है। इस कारण से अक्सर मिलिट्री ऑपरेशनों में नागरिकों को चोट लगना एक आम बात बन गई है। अब सवाल यह है कि सुरक्षा उपायों को बढ़ाते हुए भी नागरिकों की सुरक्षा को कैसे सुनिश्चित किया जाए, ताकि फिर से ऐसा बिंदु न बने।
बेमिसाल जमीनी परिस्थितियों और खतरनाक खाई‑नदी के बीच, प्रशासन को न सिर्फ़ सटीक इंटेलिजेंस पर भरोसा करना होगा, बल्कि स्थानीय समुदायों को भी योजना में शामिल करना पड़ेगा। संघर्ष के इस दौर में, जनसामान्य की आवाज़ को दबाने से आगे बढ़कर समाधान की तलाश करनी ही होगी।
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